त्रिभुवन सिंह चौहान
लाजवाब फोटोग्राफर,कर्मठ ट्रैकर, कुशल समन्वयक एवं एक बेहतरीन इंसान!
गंगा जमुनी तहज़ीब! अर्थात सनातन धर्म की पुख्ता नींव। इस नींव में मात्र इन नदियों का पानी ही नहीं है- इनके उच्च संस्कार भी हैं और इनकी आदर्श संस्कृति भी है। ठीक इन्हीं के समीप हमारी अल्प बुद्धि जिन्हें सदियों से बेडौल पत्थर मानकर चल रही है। वस्तुतः इस चराचर जगत में वे ही असली तपस्वी हैं और योग साधक भी वही हैं। ये साधना में इतने लीन हैं कि मां गंगा के आगे नतमस्तक होते-होते उनकी कमर झुक गई है। गौर करें! और फिर गिनकर देखें उनमें कितने हैं जिन्हें हमारे शिवालयों और देवालयों में जगह मिली है? लगता है असली साधक अभी भी यहीं हैं। लेकिन हमारी क्षुद्र बुद्धि देखिए वह इन्हें खोद खोदकर तोड़ रही है। और इन्हीं के बल पर भौतिकता की नींव रख रही है। किन्तु इन साधकों की उदात्त भावना देखिए कि भौतिकता के इन प्रहारों में एक पल के लिए भी इन्होंने मां गंगा की तपस्या नहीं छोड़ी है। जितनी बार मां गंगा इनको स्पर्श करती है उतने ही बार इनके कंठ से एक ही ध्वनि उच्चारित होती है- ऊं नमो भगवति हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहाः अर्थात मुझे बार-बार मिल, पवित्र कर, पवित्र कर हे भगवति मां गंगे!
गंगा के इन्हीं आदर्श, संस्कारवान और महा योगियों महा तपस्वियों के बीच हाड़ मांस के भी कई हीरे हैं। लगता है ये हीरे भी कर्म साधना उन्हीं गंगा ऋषियों से सीखें हैं। अगर निश्छल हृदय से इस देवभूमि की रज माथे पर रगड़नी है तो इन बहुमूल्य रत्नों की पहचान भी बहुत जरूरी है। इन्हीं रत्नों में एक तपोनिष्ट हैं भाई त्रिभुवन सिंह चौहान! और गुणी जनों के मध्य पहचान लाजवाब फोटोग्राफर, कर्मठ ट्रैकर ,कुशल समन्वयक के साथ ही एक बेहतरीन इंसान!
ऋषिकेश स्थित गंगा के उत्तरी छोर पर त्रिमूर्ति दत्तात्रेय आश्रम के समीप है आपकी छोटी सी कला कुटीर। त्रिभुवन भाई से वहीं मुलाकात हुई। दुबला पतला लगभग पांच फिटा शरीर। देखकर जेहन में प्रश्न उठा, इतनी दुबली-पतली काया ट्रेकर के तौर पर पहाड़ पर कैसे चढ़ी होगी? लेकिन वार्तालाप के साथ धीरे-धीरे यह तथ्य भी साफ होता गया कि हुनर के पीछे उनकी प्रबल इच्छा शक्ति हर पल साथ रही। इसी प्रबल इच्छा शक्ति के बल पर यह दुबली-पतली काया जो एक बार पहाड़ के दुर्गम, पथरीले रास्तों पर बढ़ी तो फिर खतलिंग केदारनाथ, पिंडारी, कालिंदी, मिलम मुनस्यारी, हरकी दून, बाली पास, भावा पास, रूपिन पास, राजजात, पिन पार्वती ट्रेक, रूपकुंड ट्रेक को एक नहीं कई बार नापती ही चली गयी।
पूछा- जहन में पहले क्या बैठा- ट्रेकिंग या फोटोग्राफी?
सधा जवाब मिला- पहाड़ी हैं तो ट्रेकिंग तो खून में पहले से ही था। लेकिन जहां तक फोटोग्राफी की बात है उसकी शुरुआत बड़ी हतोत्साहित करने वाला रही। कैमरा खरीदने के लिए दस हजार की जरूरत थी। लोन के लिए बैंक से दरख्वास्त की। बैंक मैनेजर ने कहा आपके पास फोटोग्राफी का कोई प्रमाण पत्र या कोई अनुभव है? जवाब दिया- नहीं! उसने कहा- तब तो मैं तुम्हें लोन नहीं दे सकता! वसूली कैसे होगी? दुकान के लिए दे सकता हूं! दुकान खोल दो! – घर आया और एक दो दिन में पुराने मटीरियल के जंक जोड़ से एक काम दिखाऊ ढांचा खड़ा कर किया, तब जाकर बैंक से लोन पास हुआ। और, मेरे हाथ में पहला कैमरा आया। यूं समझ लीजिए कि कैमरा और ट्रेकिंग से ही ग्वालदम से बाहर गहराई से दुनिया देखने का मौका मिला। संघर्ष लगातार रहा, आज भी जारी है। लेकिन लौक डाउन ने तो कमर ही तोड़…
इतना कहते-कहते थाली से मुंह की ओर उठे कौर को रोककर सहधर्मिणी से पूछते हैं, बाबा जी ने…। उधर से जवाब मिला- बाबा जी खा चुके हैं! मैंने प्रश्न किया- बाबा कहां है? त्रिभुवन भाई की सहधर्मिणी ने सड़क के दूसरे छोर की मुंडेर पर बैठे बाबा जी की ओर दृष्टि डालकर कहा – वो सामने हैं! ये बाबा अनोखे हैं! कभी खाते हैं कभी नहीं खाते हैं। कभी सूखी रोटी, कभी मात्र चाय बनाने को कहते हैं। उनके लिए ना शब्द नहीं है। इसलिए इच्छा न होने पर भी अक्सर यहां बैठ जाते हैं। वैसे… ये त्रिभुवन जी की आदत है द्वार पर आये किसी को भी भूखा नहीं जाने देते हैं। धर्म परायण नगरी के ये संस्कार कहीं न कहीं त्रिभुवन भाई के रचना कर्म में भी देखने को मिलते हैं।
इसी बात से आगे थोड़ा बौद्धिक विमर्श पर त्रिभुवन भाई आगे जोड़ते हैं- भाई! मां गंगा में हर कोई राह तलाशते हैं। सुख सुविधाओं वाले भी – और दुखियारे भी। एक दिन यहीं सड़क पर था कि नीचे से किसी की आवाज सुनाई दी- अरे बचाओ! बचाओ! एक औरत ने अपनी बच्ची के साथ नदी में छलांग लगा दी है। इतना सुनते ही सीधे नदी की ओर दौड़ लगा दी। थोड़ी दूर तैरकर उस बेसुध बहन को ऊपर उठाते ही समीप एक नाव भी आ गई। नाव वालों ने बहन को धोती के छोर से थाम लिया। फिर एकदम ख्याल आया कि इस बहन की लड़की भी है। और जैसे ही मैंने उसकी खोज में वहां दुबारा डुबकी लगाई तो देखता हूं वह बच्ची अपनी मां के पांव से लिपटी हुई है। फौरन उसे भी बाहर खींचा। लड़की के नाक और पेट में पानी भर चुका था लेकिन प्रभु कृपा से सांस चल रही थी।
समय पर ट्रीटमेंट भी हुआ और दोनों की जान बच गई। भाई ! ऐसी ही कई घटनाओं का साक्षी हूं। दो तीन वर्ष पूर्व तक गंगा जी के आर पार तैर जाता था। अब उतनी सामर्थ्य नहीं है। लेकिन अभी भी जो बच्चे सैल्फी, मौज मस्ती के लिए नदी की ओर जाते हैं उन्हें आगाह कर देता हूं आगे न जाएं यहां नदी बहुत गहरी है!
वास्तव में नदी हो अथवा साहित्य, कला, संस्कृति उनमें गहरे तक पैठना हर किसी की सामर्थ्य में भी नहीं है। उनमें गहरे तक पैठने के लिए त्रिभुवन भाई सदृश्य दूरदर्शिता और प्रबल इच्छाशक्ति की जरूरत होती है।
लेकिन मात्र गहरे तक पैठना ही नहीं अपितु आम जनमानस के साथ भी समन्वय होना भी जरूरी है। इस दृष्टि से भी आप पीछे नहीं हैं। सर्विया मूल के लेखक, निर्माता, निर्देशक गोरान पाश्कलजिविक द्वारा निर्देशित एवं विक्टर बैनर्जी, राज जुत्सी, एस.पी.मंमगाई अभिनीत केदारनाथ त्रासदी तथा कई ज्वलंत मुद्दों पर आधारित मूवी देवभूमि लैंड आफ गॉड में लोकेशन कोआर्डिनेटर तथा विपुल मेहता निर्देशित गुजराती गोल्डन जुबली फिल्म चाल जीवि लाये में लाइन प्रोड्यूसर के रूप में आपकी भूमिका आपके इसी गुण को विस्तार देती हैं।
एक रचनाकार की रचनात्मकता दूसरे रचनाकार की दृष्टि में कितनी है? यह भी एक रचनाकार की गहराई मापने की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। इसमें भी त्रिभुवन भाई पीछे नहीं हैं। ख्यातिनाम चित्रकार बी. मोहन की स्मृति में सर्वप्रथम फोटो प्रदर्शनी आपके सौजन्य से ही लगी है। कहते भी हैं- बी. मोहन! वे असली योगी थे। हमें उनके कार्य की उपेक्षा भी चिंतित करती है।
यह पूछने पर कि – अभी तक कितनी फोटो खींच चुके हैं?
कहते हैं- एक लाख से ऊपर फोटो खींच चुकी होंगी। शौक महंगा है लेकिन कमी नहीं की है। किन्तु स्कोप आज भी ज्यादा नहीं है। कुछ इधर-उधर मैगजीन्स में छपी हैं। पचास के करीब अल्मोड़ा पुस्तक भंडार ने खरीदी हैं। सूचना विभाग भी साल भर में कलेंडर हेतु दो चार छाप लेता है। वैसे सूचना विभाग से ज्यादा पर्यटन विभाग से संभावनाएं थी। लेकिन हमारे पास पर्यटन का अभी तक कोई सार्थक पैटर्न नहीं है। राजस्थान ने ढांणी के रूप में वहां के खान-पान और संस्कृति संरक्षण की जो चेन शुरू की है वह काबिले तारीफ है। वैसी ही कोशिश उत्तराखंड के समग्र विकास के लिए जरूरी है। कला का क्षेत्र तो यहां और भी उपेक्षित ही है। संसाधन हैं लेकिन धन नहीं है।
महंगाई की मार इतनी कि कुछ फोटो अभी तक डिवलप ही नहीं की जा सकी हैं। कला दीर्घा में टंगी एक धुंधली फोटो भी इस बात की गवाही देती है। उस फोटो पर मेरी दृष्टि पड़ते ही त्रिभुवन भाई कहते हैं- श्ये भी कलर्ड फोटो ही थी। लेकिन…।श् – लेकिन यही कि समुचित रखरखाव के लिए प्रयाप्त धन ही नहीं है।
यकीनन त्रिभुवन भाई के संग्रह में यही एक अकेली धुंधली फोटो नहीं होगी- और भी कई होंगी। ऐसा नहीं कि संरक्षण, संवर्द्धन की कोशिश नहीं की होगी। किन्तु – व्यक्तिगत प्रयास की भी तो एक सीमा होती है। व्यक्तिगत प्रयास से आगे की संभावनाएं व्यवस्था की इच्छाशक्ति पर ही निर्भर होती हैं। देखते हैं व्यवस्था इस ओर कब सजग होती है।
त्रिभुवन भाई! आप कर्मयोगी हैं। मां गंगा भी आपके कर्म योग की साक्षी है। आप कर्म पथ पर यूं ही रत रहें! आप शतायु जिएं!
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