जितना प्रदेश की राजनीति को यहां लोग समझ पाए हैं, गुजरे दो दशक में तकरीबन उतना ही यहां की शिक्षा व्यवस्था का स्वास्थ्य भी लोगों के पल्ले पड़ सका है। हालात जहां बेपटरी थे वहां कई जगहों पर से पटरी अदृश्य सी है, व्यवस्था को चलाने वाले पुर्जे अपना काम छोड़ दूसरे कामों के महारथी बनने को बड़प्पन समझने लगे हैं। कोई पूछनहार नहीं। लेकिन अब हालात कुछ बदले नजर आ रहे हैं। जब से शिक्षा के स्वास्थ्य का जिम्मा डा धन सिंह रावत के पास आया तो उनकी काबिलियत को माप सकने के साथ समाज हित के चिंतकों में उम्मीद एक किरन सी जग गई है।
अगर हम यह कहें कि प्रदेश में सरकारी शिक्षा व्यवस्था बदहाल है, तो वह एक पुरानी कहानी को कई बार दोहराने जैसा ही है। बिखरते मूल्यों का एक ऐसा दोहराव जिसका कुरूप चेहरा वर्तमान पर नहीं वरन, भविष्य पर एक बदनुमा दाग की तरह पीढ़ियों को सालता रहेगा। वहीं निजी शिक्षा की प्रतिस्पर्द्धा ने सरकारी लचरता को और भी अधिक कचूमर में धकेल दिया है।
एक तरह से सरकारी शिक्षा की खानापूर्ति को हमारे तंत्र के साथ ही हमारे समाज ने भी स्वीकार सा लिया है। नियंताओं की पौ बारह तो हर हाल में है। फिर सरकारी स्कूल के खाली कमरों में बैठकर गुरूजी का इंतजार कर रहे गरीब के बच्चों की सुध की किसे फिकर होगी, और क्यों। कुछ को छोड़ कर, मास्साब जो हैं भी उनमें से ज्यादातर सोशल मीडिया के तुर्रमखां बने हैं तो कोई महाकवि, महान साहित्यकार, संगीतकार तो कोई महान गीतकार बनने की रेस ज्यादा दिख रहे हैं। सरकारी स्कूलों के बच्चे और अभिभावक नहीं बल्कि शिक्षा व्यवस्था ही यहां अब खरबूजे की भूमिका है। गणित चाहे तंत्र की घूमे या मंत्र की चौपट तो व्यवस्था ही होना है।
बहरहाल, अब प्रदेश की शिक्षा की कमान डा धन सिंह रावत को मिली है। इससे समाज के हितैषी वर्ग को कुछ उम्मीद जरूर जगी है। उम्मीद की जा रही है कि जैसे सहकारिता और उच्च शिक्षा जैसे उपेक्षित विभागों को डा रावत ने दुरूस्त किया है, शिक्षा का स्वास्थ्य सुधारने में भी ठीक उसी तरह उनकी काबिलियत का असर दिखेगा। जो असर समाज के बेहतर भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित होगा।