पौड़ी जनपद के सपलोड़ी गांव विकास खंड पाबौ में कुछ दिवस पूर्व एक महिला को शिकार बनाने वाले खूनी पंजे जब पिंजरे में कैद हुए, तो अपनों की खोने की पीढ़ा झेल रहे अवसादग्रस्त पीड़ितों के आवेश में वहां ऐसा घटित हो गया जो निश्चित रूप से गलत है। उसकी निंदा होने के साथ ही ज्यादा जरूरत उन प्रयासों की भी है कि इस तरह के वाकयों की पुनर्रावृत्ति ना हो। लेकिन इसके लिए जबाबदेही तो तय की जानी चाहिए, और सही में उन लोगों की जानी चाहिए जो सही मायनों में इसके लिए जिम्मेदार हैं। और इसस संवेदनशील समय में कू्रर और बेरहमी जैसे शब्दों के इस्तेमाल से भी बचा जाना चाहिए।
हमारे पहाड़ों में मानव और वन्य जीवों के संघर्ष की कहानी दशकों से चलती आई है। इस संघर्ष में जाने कितनी माओं की गोद सूनी हुई हैं, कितनों के सिर से मां का आंचल और पिता का साया उठा है, यह गिनती भी एक हिसाब से देखें तो आंकड़ो कतई छोटा नहीं होगा।
इस तरह के घटनाक्रम से एक परिवार नहीं पूरा गांव व इलाका प्रभावित होता है। क्रूरता और बेरहमी जैसे शब्दों के इस्तेमाल करने वाले भले ही अपनी विद्वता दर्शाने के लिए आजाद हों, लेकिन कभी पीड़ितों की जगह पर स्वयं को खड़ा करके देखो, तो बात समझ में आ जाएगी, कि अपने को खोने के तनाव और अवसाद में कई बार विवेक कैसे शून्य हो जाता है।
कुल जमा देखा जाए तो इस घटनाक्रम में अवसाद से गुजर रहे आक्रोशित ग्रामीणों पर दोष मढ़ना उपयुक्त नहीं होगा। इसके लिए वन विभाग प्रशासन की जबाबदेही पहले तय होनी चाहिए, जिन्होंने पिंजरा लगाकर ही अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री कर दी। क्या उन्हें स्थितियों का सामना करने के लिए पूर्व से तैयारी नहीं कर लेनी चाहिए थी।
ग्रामीणों के आक्रोश के कारण ऐसे घटनाक्रम पहले भी कई जगह हो चुके हैं। ऐसे में विभाग को अलर्ट हो जाना चाहिए।
इस बात में भी कोई दो राय नहीं हैं कि पिंजरे में फंसे खूनी पंजों के खात्मे के लिए अधिकांश जगहों पर ऐसे प्रयास होते आए हैं। आक्रोश की यह प्रतिक्रिया अवसार की स्थितियों स्वाभाविक भी है। लेकिन इन परिस्थितियों को नियंत्रित करने के लिए वन विभाग को पुख्ता इंतजाम करने चाहिए थे। जहां प्रशासन ने ऐसे घटनाक्रम टालने के प्रयास किए वहां आसानी और बहुत अच्छी तरह से उन्हें टाला भी गया। इस संकट को टालने के लिए जोर जबरदस्ती की बात नहीं बस थोड़ा मोटिवेशन की जरूरत होती है। इस हादसे के लिए अवसारग्रस्त ग्रामीणों से अधिक वन प्रशासन है।