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स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में इसी तरह मरती रहेंगी पहाड़ की मेधाएं?

शंकर सिंह भाटिया
उत्तर प्रदेश के दौर में सन् 2000 से पहले पहाड़ में जो सीमित स्वास्थ्य सुविधाएं मौजूद थी, इन 18 सालों में वह सभी ध्वस्त हो गई हैं। राज्य बनने के बाद पहाड़ के गंभीर मरीजों के लिए एयर अंबुलेंस की बात की जा रही थी, लेकिन आम आदमी की पहुंच से वह भी बाहर ही है। यही वजह है कि गढ़वाल मंडल मुख्यालय पौड़ी में एक संघर्षशील, समाज के लिए समर्पित पत्रकार/लेखक ललित मोहन कोठियाल हृदयघात से करीब तीन-चार घंटे जूझने के बाद इस दुनिया से अलविदा कह गए। यदि उन्हें समय पर स्वास्थ सुविधाएं मिल गई होती तो शायद वह आज हमारे बीच होते। सवाल उठ रहा है कि क्या इसीलिए उत्तराखंड राज्य यही दिन देखने के लिए बनाया गया?
अविवाहित ललित मोहन कोठियाल अपने घर में अकेले रहते थे। बताया जा रहा है कि उन्हें सुबह करीब सात बजे हृदयघात ने आ घेरा। उनके किरायेदार पत्रकार मनोहर चमोली को थोड़ा देर से इसकी भनक लगी। वे उन्हें मंडल मुख्यालय पौड़ी के जिला अस्पताल में लेकर पहुंचे। मंडल मुख्यालय के जिला अस्पताल की हालत इस कदर खराब थी कि उन्हें इस क्रिटिकल हालात में प्राथमिक उपचार देने की स्थिति तक नहीं थी। उन्हें तुरंत श्रीनगर के बेस अस्पताल रेफर कर दिया गया। पौड़ी से श्रीनगर पहुंचने की इस प्रक्रिया में काफी देर हो गई थी।
इस बीच सुबह करीब दस बजे वरिष्ठ पत्रकार गैरसैंण निवासी पुरुषोत्तम असनोड़ा का फोन आया कि ललित मोहन कोठियाल की हालत हृदयघात से बहुत खराब हो गई है, उन्हें पौड़ी से श्रीनगर ले जाया जा रहा है, यदि उन्हें एयरलिफ्टिंग की सुविधा मिल जाए तो संभव है, उनकी जान बच जाए। मैं देहरादून में हूं शायद सत्ता के करीब हो सकता हूं, इसलिए असनोड़ाजी ने यह सोचकर मुझे फोन किया होगा। उन्हें क्या पता कि मैं सत्ता के करीब फटकता भी नहीं हूं। क्योंकि सवाल एक बेहद गंभीर, संवेदनशील और समाज के लिए समर्पित लेखक, पत्रकार साथी ललित मोहन कोठियाल से जुड़ा था, इसलिए उन्हें बचाने के लिए एयरलिफ्ट की सुविधा जुटाने में मैं जी जान से जुट गया। अन्य पत्रकार साथी भी अपने-अपने स्तर से इस काम में जुटे हुए थे। सबसे पहले मुख्यमंत्री के दरबार में मौजूद मुख्यमंत्री के मीडिया कोआर्डिनेटर दर्शन सिंह रावत को फोन लगाया। कुछ समय के अंतराल में चार बार उन्हें फोन लगाता रहा, लेकिन उनका फोन नहीं उठा। उसके बाद वरिष्ठ मंत्री प्रकाश पंत को फोन लगाया। उन्होंने बताया कि वह मीटिंग में हैं। विधानसभा अध्यक्ष प्रेम अग्रवाल को फोन किया। उन्होंने कहा कि यह शासन का मामला है, फिर भी वह कोशिश करेंगे। मंत्रिमंडल में और भी कई मंत्री थे, जो मुझे जानते थे, लेकिन इस हड़बड़ाहट में किसी को फोन लगाने की याद ही नहीं रही। तब मुख्यमंत्री के औद्योगिक सलाहकार केएस पंवार को फोन लगाया। इंवेस्टर समिट में व्यस्त होने के बाद भी उन्होंने न केवल फोन उठाया, बल्कि संवेदनशील होकर हेलीकाप्टर की व्यवस्था भी की।
उन्होंने बताया कि इस संबंध में उनकी अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश से बात हुई है। डाक्टर यदि उन्हें देहरादून रेफर करते हैं तो वे एयरअंबुलेंस भेज देंगे। यह प्रक्रिया चल ही रही थी कि श्रीनगर से साथियों से सूचना मिली कि ललित मोहन कोठियाल हमारे बीच नहीं रहे। इस सूचना ने दिल को बहुत अधिक व्यथित कर दिया। तथ्यपरक लेखन और संवेदनाओं को छूने वाली कोठियालजी की लेखनी का मैं कायल रहा हूं। वे न केवल एक वरिष्ठ पत्रकार थे, बल्कि एतिहासिक मुद्दों पर पुस्तकों के लेखन में उनका कोई सानी नहीं था। लेखन के साथ सामाजिक कार्यों से भी उनका बहुत गहरा जुड़ा रहा। मैं उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बहुत नहीं जानता था, संभवतः अविवाहित रहने की वजह से उनके जीवन की संपूर्ण ऊर्जा तथ्यपरक लेखन, सामाजिक कार्यों से जुड़ाव और दूसरों की मदद करना था। यही उनका पेशन था। हाल ही में लेखन को लेकर वे पूर्वोत्तर राज्यों का दौरा कर लौटे थे। उत्तराखंड के छोटे-बड़े शहरों-कस्बों के बारे में वह संकल जुटा रहे थे। उमेश डोभाल ट्रस्ट की गतिविधियों से वे बहुत करीब से जुटे हुए थे।
एक ऐसे व्यक्ति का अल्पायु में ही स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में इस दुनिया से चला जाना कई प्रश्न खड़े करता है। अभी हाल ही में पूर्व मंत्री केदार सिंह फोनिया को भी दौरा पड़ा था। जोशीमठ में सेना द्वारा समय पर एयरलिफ्ट कर उन्हें हिमालयन अस्पताल देहरादून पहुंचा दिया गया था, जिससे 90 वर्ष से अधिक की आयु में फोनियाजी का न केवल जीवन बच गया, बल्कि दौरा पड़ने के बाद शरीर के पैरालाइज होने के जो साइड इफेक्ट पड़ते हैं, उनसे भी वे बच गए थे। यदि पहाड़ के आम व्यक्ति को भी दौरा पड़ने पर एयरलिफ्ट की यह सुविधा मिल जाती तो कोठियालजी तीन-चार घंटे पौड़ी-श्रीनगर के बीच झूलने के बजाय देहरादून पहुंचकर स्वास्थ्य सुविधाएं ले पाते, संभवतः वह आज हमारे बीच होते। ऐसी किसी सुविधा के अभाव में उत्तराखंड के वह भी पहाड़ के साधारण पत्रकार अपने स्तर पर उन्हें एयरलिफ्ट करने के लिए सरकारी तंत्र के आगे अपने-अपने स्तर पर नाक रगड़ रहे थे, जब तक उन्हें लिफ्ट किया जाता, वह हमारे बीच से उठ गए।
इतना ही नहीं संकट उन्हें देहरादून लाकर किसी अस्पताल में रखने का भी था। निजी बड़े अस्पताल एडवांस में फीस जमा किए बिना मरीज पर हाथ तक नहीं डालते। कोठियालजी भी आर्थिक रूप से कमजोर पत्रकार ही थे, न ही वे मान्यता प्राप्त पत्रकार थे, जिनको सरकार से कुछ सुविधाएं अनुमन्य होती हैं। इसके लिए सूचना विभाग में अपर निदेशक अनिल चंदोला से संपर्क करने का प्रयास किया। दूसरे एटेम्प्ट में उन्होंने फोन उठाया। उन्होंने भी मुख्यमंत्री के स्टाफ से फोन कर व्यवस्था करने का आश्वासन दिया। विडंबना देखिये पौड़ी निवासी संघर्षशील लेखकर पत्रकार ललित मोहन कोठियाल को देहरादून लाया जाएगा तो अस्पताल का खर्च कहां से आएगा? यह सवाल उठने लगा था। मान्यता न होने के कारण सरकारी सुविधा मिलने में भी दिक्कत हो सकती थी। पहाड़ में ललित मोहन कोठियाल जैसे कितने पत्रकार हैं, जिन्हें मान्यता नहीं मिली है। लेकिन देहरादून में कोई भी दलाल आकर पत्रकार की मान्यता ले लेता है। देहरादून में राज्य स्तरीय तथा जिला स्तरीय मान्यता प्राप्त पत्रकारों की संख्या पांच सौ से अधिक है, जबकि नैनीताल समेत दस पर्वतीय जिलों सिर्फ 196 मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं। ऐसा नहीं कि पहाड़ में पत्रकार नहीं हैं, देहरादून में कोई दलाल किस्म का पत्रकार पहुंच लगाकर मान्यता ले लेता है, पहाड़ के पत्रकारों को कठोर मानकों से गुजरना पड़ता है। यही वजह है कि एक जिले देहरादून में पांच सौ से अधिक मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं तो रुद्रप्रयाग जिले में छह और चंपावत में सिर्फ पांच मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं।
सवाल उठता है कि क्या उत्तराखंड इसीलिए बनाया गया था? जहां तक हम समझते हैं, पहाड़ की दुरूह भौगोलिक स्थिति, विकास का अभाव, शिक्षा, स्वास्थ्य के अभाव को दूर करने के लिए उत्तराखंड राज्य के औचित्य को स्वीकार किया गया था। लेकिन उत्तराखंड की सरकारें जानबूझकर इस औचित्य को नकार रही हैं। उत्तराखंड को मिलने वाली सारी सुविधाएं देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर में जुटा रही हैं, इस हालत में पहाड़ का आदमी इन्हीं स्थितियों में मरने के लिए छोड़ दिया गया है। कई लोगों को हमने सुना है कि पहाड़ में स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में अपने को मरने के लिए छोड़ने से बेहतर है कि वहां से पलायन कर लिया जाए। क्या सरकार इस सच्चाई से अनविज्ञ है? या फिर सबकुछ जानकार भी वह पहाड़ को नजरंदाज कर रही है? इन हालात में पलायन आयोग बनाकर पलायन रोकने की बात करना सिर्फ सरकार का नाटक नहीं लगता?

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