दूर नहीं जाते हैं, गत वर्षों पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में हुए घटनाक्रमों का ही उदाहरण ले लेते हैं। वहां बदायूं, साहिबगंज, उन्नाव, लखीमपुर खीरी आदि जगहों पर अपराध की पड़ताल करने के लिए कब्र में दबे शवों को फिर से पोस्टमार्टम या फारेंसिक जांच के लिए बाहर निकाला गया। केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई के दबदबे में कब्र से बाहर आकर लाशों ने सच उगला और तब जाकर न्याय का रास्ता प्रशस्त हुआ।
कमोवेश अपराध के उक्त वाकये वनंतरा रिसार्ट में मारी गई अंकिता भंडारी के केस से ही मिलते जुलते थे। इनमें से किसी ने पखवाड़े भर में तो किसी के शव ने दफनाने के ढाई तीन माह बाद भी बाहर आकर अपने हुए पर जुल्मों को पुख्ता किया। और यह सब तब संभव हो पाया जब मामले इसी तरह के बेहद पेचीदा थे और जांच सीबीआई के हवाले थी।
बात करते हैं हाल में कुख्यात वनंतरा रिसार्ट में हुए अंकिता भंडारी केस की। यहां हर कदम पर सवाल बिखरे पड़े हैं लेकिन जो जबाबदेह हैं उनके पास बताने के लिए ऐसा कुछ नहीं जिसे तर्क संगत और न्याय संगत माना जाए। पोलिसिंग के जानकार बताते हैं कि किसी भी घटना की पड़ताल के लिए घटनास्थल का जीवित होना जरूरी होता है। जीवित यानी ठीक वैसा ही जैसा घटना से पहले रहा हो। वहां आसपास के इलाके तक में किसी तरह की आवाजाही तक वर्जित कर दी जाती है। वहां सिर्फ जांच करने वाले ही तब तक दाखिल हो सकते हैं जब तक कि पड़ताल पूरी ना हो जाए।
लेकिन अंकिता के मामले में खुले आम घटनास्थल पर ही बुल्डोजर चलाया गया। आगजनी कर दी गई। यह सब किसके आदेशों पर हुआ यह इसका तो किसी को जबाब चाहिए ही नहीं, लेकिन यहां प्रशासन को पूरी तरह से पोलियोग्रस्त माना जा रहा है।
चलो , मान लेते हैं कि यूपी की तर्ज पर तालियां बजवाने के लालच में जाने अनजाने किसी स्तर से बुल्डोजर चलाया गया, और घटना से आक्रोशित भीड़ ने कथित तौर पर खून से सने कक्षों में आगजनी कर दी। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि तब पुलिस और उसकी पोलिसिंग क्या कर रही थी। जाहिर है कि दाल में कुछ काला है। गहन पड़ताल से पूर्व साक्ष्य मिटाने के लिए घटनास्थल को ध्वस्त कर दिया जाता है तो सवाल लाजमी हैं।
उस पर तुर्रा यह कि पुलिस के एक थाने स्तर के अधिकारी बाकायदा सोशल मीडिया पर यह बयान जारी करते हैं कि घटनास्थल से सारे सबूत जुटा कर संरक्षित कर लिए गए हैं। अगर महज कुछ ही घंटों में हत्या जैसे जघन्य वारदात के सबूत इकठ्ठा हो जाते तो सीबीआई जांच में तीन माह बाद लाशें कब्र से बाहर नहीं आती।
बहरहाल अंकिता के मामले में जांच का स्तर कहीं पर भी संतोष पैदा नहीं कर पा रहा है। ऐसे में पीड़ित के परिजनों से लेकर हर एक उत्तराखंडी जनमानस की उम्मीद सीबीआई पर ही टिकी है।