अंकिता हत्याकांडः ध्यान रहे, समय की धूल से कहीं ढक न जाएं काली करतूतें
पत्रकार आशुतोश नेगी के साथ ही अन्य कुछ सराहनीय प्रयासों के अलावा अंकिता भंडारी हत्याकांड के खिलाफ उठने वाली अधिकांश आवाजें खामोश सी होने लगी हैं। या जो उठ भी रही हैं उनमें मनोयोग से अधिक औपचारिकता का भाव ज्यादा लग रहा है। स्वयं को मुख्यधारा का बताने वाली मीडिया या अखबारों ने भी इस मामले को पूरी तरह से सिमटा दिया है। जरूरत आम जन को पूरे मनोयोग और एक दूसरे के साथ मिलकर फिर से एक हुंकार और भरने की है ताकि सीबीआई जांच हो और उत्तराखंड की बेटी को न्याय मिल सके। जुल्मी की काली करतूतों को समय की धूल हमेशा के लिए ढक ना ले, इसके लिए जनदबाव बेहद जरूरी है।
समय का कांटा अपनी रफ्तार पर है। एक माह पूर्व देवभूमि में हुए जघन्य अपराध में मारी डाली गई उत्तराखंड की बेटी अंकिता भंडारी की दिवंगत आत्मा को ईश्वर अपने श्री चरणों में स्थान दें। लेकिन अचरज है कि उस हत्याकांड को लेकर जो सवाल पहले दिन थे वो आज भी अपनी जगह कायम हैं। अपराध की परतें आज भी उखड़ने के इंतजार में हैं, लेकिन समय की धूल का अपना स्वभाव होता है, वक्त रहते नहीं चेते तो बड़ी वारदातों को भी सदा के लिए दफन होते देखा गया है।
फरज करो, एक ऐसी लड़ाई जिसमें एक ओर रसूक और पैसे वाले हों और दूसरी ओर तंगहाली में जीवन बिताने वाले भोले भाले ग्रामीण। इन हालातों में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि पलड़ा किसका भारी होगा। जाहिर तौर पर पैसे और पहुंच का जोर जहां भी चलता है वहां गरीब की आवाज के मायने समाप्त हो जाते हैं। अंकिता भंडारी हत्याकांड की कहानी भी तकरीबन कुछ ऐसी ही है। यहां एक ओर रसूक है, पैसा है, पहुंच है और दूसरी ओर नितांत ही वेबशी के हालात।
केस की शुरूआत में जन भावनाओं ने उबाल मारा और लोग पूरी ताकत के साथ अंकिता के परिजनों के साथ खड़े हो गए। लेकिन कहते हैं ना, कि भावनाओं की उम्र लंबी नहीं होती। जिस वेग से वो उठती हैं उसी वेग से वह लौट भी जाती हैं। मामले की जांच करने वाली एजेंसी एसटीएफ कितना और क्या कर पाएगी यह तो अब सवाल ही नहीं रह गया। हालांकि अपनी भूमिका उत्कृष्ट साबित करने का हर कोई प्रयास करता है तो उम्मीद है कि एटीएफ भी कर रही होगी।
लेकिन घटना स्थल में चलाए गए बुल्डोजऱ, आगजनी जैसे वाकयों पर प्रशासन का पहले हामी भरना, फिर मुकर जाना, अब कलेक्टर व कप्तान को हटाया जाना, प्रशासन द्वारा बुल्डोजर चलने को सामान्य बात ठहराना, सारे सबूत एकत्र करने की बात कहने के लिए पुलिस के अधिकारियों को सोशल मीडिया पर आना, ये सब घटनाक्रम ऐसे हैं जिन्होंने कई सवालों को जन्म तो दिया ही है, कुछ सवालों का उत्तर भी और साफ कर दिया है।
कुल जमा देखा जाए तो जहां शक्ति का प्रभाव होगा वहां गरीब की तो सुनी ही नहीं जा सकती। पौड़ी से पत्रकार आशुतोष नेगी और मीडिया के अन्य लोग और आम जनमानस पूरी देवभूमि की ओर से कोटिशः साधुवाद के पात्र हैं जो पूरी ताकत के साथ कमजोर की इस लड़ाई में न सिर्फ साथ दे रहे हैं बल्कि स्वयं ही मोर्चा संभाले हैं। सच में जरूरत उत्तराखंड की बेटी को न्याय के लिए आम जन मानस के पूरे मनायोग के साथ खड़े होने की है। इस लड़ाई में जीत के लिए लोगों को फिर से हुंकार भरनी होगी। जन दबाव से ही सीबीआई जांच की राह प्रशस्त होगी, जो सीबीआई मामले के खुलासे के लिए बहुत जरूरी है।