पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राम मोहन राय की प्रासंगिकता यथावत
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श्मसान घाट पर चिता सजाई जा चुकी थी । मृत पति के साथ उसकी जिन्दा पत्नी को बांधा जा रहा था । भीड़ में , उसका नन्हा देवर , चिल्ला -चिल्लाकर चीख रहा था -यह सरासर अन्याय है । अपराध है । किन्तु भाभी और उसके बालक देवर की चीख -पुकार सती माता के जयकारों और ढोल-नगाड़ों की आवाज़ के बीच उस समय दबकर रह गयी।
उक्त नन्हा देवर कोई और नहीं -बालक राममोहन राय ही था । जिसके ह्रदय में उठी चिंगारी , कालान्तर में लपट बन गयी।जिसने स्वतंत्र भारत के संविधान में नर-नारी समभाव को कैंची के दो फलों की तरह समान एवम् पूरक के रूप में आलोकित किया।फलतः पुरुषवादी सोच को मज़बूर होकर यह महसूस करना पड़ा कि -पत्नी- पति की निर्जीव संपत्ति नहीं ,वल्कि जीवन पथ पथ पर अग्रसर रहने वाली मुक़म्मल इकाई है ।
आज सतीप्रथा राजा राममोहन राय की सकारात्मक पहल के कारण भारत के नक्शे से ग़ायब हो चुकी है परन्तु कन्या भ्रूण हत्याएं , वधू दहन ,और चलतीं कारों में या रोज़गार की मजबूरी में , कच्ची उम्र की बालिकाओं के प्रति किये जा रहे यौन अपराधों की बेरोकटोक धींगामस्ती , हमारी किंकर्तव्यविमूढ़ता तथा सुशासन की प्रतिबद्धता के लिए चुनौती बनीं हुई है।देश का विक्षुब्ध जनमत निःसंदेह किसी नए राजा राममोहन राय के फ़िर से अभ्युदय होने की प्रतीक्षा में है।
राय जैसी सच्ची लगन वाले प्रबुद्ध व्यक्ति ही खटकने वाली बातों का विरोध करते हैं । वही उसे बदलते हैं और समाज को नया रूप देते हैं ।
राजा राममोहन राय -जाति -पांति के विरुद्ध -समानता , अन्धविश्वास के धर्म के बजाय -सत्य के धर्म के प्रबल पक्षधर थे। आज फिर भारत को ,विशुद्ध समाज के नव निर्माण के लिए ,नव पुनर्जागरण की महती आवश्यकता है ।
प्रो. भगवत नारायण शर्मा