एक खबर के शुरूआती शब्द पढ़े- ‘केदारनाथ यात्रा में घोड़े वालों ने एक अरब कमाए!’ सत्यता जानने के लिए ‘लोकार्पण’ चैनल के मित्र त्रिभुवन सिंह चौहान जेहन में आये। क्योंकि भाई त्रिभुवन पिछले कई दिनों से केदार घाटी में ही सक्रिय थे। त्रिभुवन भाई ने कहा- ‘खबर में कुछ सत्यता तो है! क्योंकि मैंने भी कई घोड़े वालों से सम्पर्क किया है – और जानने से मालूम हुआ है कि प्रत्येक ने अनुमानतः छः-सात लाख कमाए हैं।’ त्रिभुवन भाई निर्भीक ही नहीं बल्कि निष्पक्ष पत्रकारिता के भी पक्षधर हैं -अतः खबर के ये ‘एक अरब’ शब्द आश्वस्त ही नहीं अपितु गौरवान्वित भी कर गये।
उसी खबर में आगे दो आंकड़ों के साथ ये शब्द भी जुड़े थे- वे भी इन आंखों ने पुनः पढ़े- ‘हेली सेवा में लगे उड़न खटोलों ने 75 करोड़ और डंडी-कंडी वालों ने 86 लाख कमाए।’ अर्थात पहले स्थान पर हमारे घोड़े रहे। हमारे घोड़ों के बल के आगे हेली वाले भी हांफ गये।
सत्य कहें तो ये ‘केदारनाथ यात्रा में घोड़े वालों ने एक अरब कमाए!’ पढ़कर एक क्षण जेहन में स्तालिन के शब्द भी तैरे। उनके ये शब्द कहीं पढ़े थे- उन्होंने लिखा है- ‘हमनें व्यवसाय के क्षेत्रों में पूंजीपतियों को,कृषि के क्षेत्र में जमीदारों को और व्यापार के क्षेत्र में मुनाफाखोरों को समाप्त करके मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अन्त कर दिया है। परिणामस्वरूप हमनें एक ऐसे आर्थिक संघटन की रचना की है, जिसमें बेकारी,निर्धनता तथा भूख का नाम तक नहीं बचा है।’ लेकिन दूसरे ही क्षण जेहन में प्रश्न उठा- इस एक अरब से क्या सचमुच इतने प्रश्न हल हो गये?
वस्तुतः आप और हम उस खुरदुरे यथार्थ से कोसों दूर हैं जिसपर वे घोड़े चले हैं। अतः घोड़ों की इस उपलब्धि के साथ हांकने वालों को न जोड़े। हांकने वाले तो यूं ही पिछले बाईस सालों न जाने कितने घोड़ों को हांक रहे हैं। हांकने वाले बदलते रहे किन्तु घोड़े लगातार दुर्गम पहाड़ नापते रहे। घोड़ों को हांफते न उन पर सवारों ने देखा और न उन्हें हांकने वालों ने। उन्हें तो साम-दाम-दण्ड -भेद हर हाल में केदार के दर्शन करने थे अथवा करवाने थे। सम्पूर्ण यात्रा में एक निरीह के साथ दो और प्राणी अवश्य थे- वे दोनों भी उसके ईश्वर थे। इस दौरान एक हजार से ज्यादा घोड़ों ने प्राण त्यागे। जो घोड़े,गिरे-पड़े या मरे वे दुबारा नहीं उठे। उनकी असामयिक मृत्यु पर प्रयाश्चित करने वाले कितने थे? मां मंदाकिनी उन सबको सदगति दे!
विडम्बना देखिए हम कलमकारों के पास भी बस विचारों की सूखी घास है।
घोड़ों के द्वारा की गई इतनी बड़ी जनसेवा और इतने बड़े त्याग को हम कहीं नहीं उकेर सके। दुर्भाग्य है कि हम घोड़ों से ज्यादा हांकने वालों का परिश्रम आंक रहे हैं।
मेरा तो घोड़ों से ही विनम्र निवेदन है कि अगली यात्रा में वे अपने दुख दर्द को उकेरने की कमान स्वयं ही सम्भालें। ताकि यदि कोई उनके साथ अन्याय करे तो फौरन बाबा को अर्जी डाल सकें। आखिर क्यों वे हम चापलूस कलमकारों के भरोंसे रहें। मुझे पूर्ण विश्वास है अपने दुख दर्द पर वे हमसे बढ़िया कविता लिख सकते हैं। यह भी निसंकोच कह सकते हैं कि वर्तमान में उन जैसे संघर्षशील घोड़े ही अच्छे साहित्यकार हो सकते हैं।
यह भी कम बात नहीं है कि इस बार कीमती पटाखों, फुलझड़ियों ने नहीं घोड़ों ने पहाड़ का नाम रोशन किया है। यूं भी हमारे बीच पहाड़ का नाम रोशन करने वाले गिनती के हैं। और इनमें भी जो थोड़ा बहुत पहाड़ का नाम रोशन करने वाले समझे गये हैं- बताओ वे पहाड़ में कहां टिके हैं? इस दृष्टि से भी अगर आंकलन करें तो असली पहाड़ी हमारे घोड़े ही हैं। देखना यही है कि इस बार कितने पुरस्कार,सम्मान हमारे इन घोड़ों के हक में जाते हैं।
किन्तु एक बात ध्यान से सुनें!
हमारे घोड़ों को सम्मान पुरस्कार मिले या न मिले लेकिन हम उन्हें मशीन भी न समझें। कुछ सुझाव हैं यदि आप समझें-मनन करें। पहली बात तो यह है कि घोड़े मात्र घोड़े नहीं अब हमारे कमाऊ पूत भी हैं। उनकी सेवा के लिए हमारे भी कुछ कर्तव्य बनते ही है। किन्तु- जैसा हम वैसा आप भी देख ही रहे हैं- कि हमारे घोड़े खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हैं। उनके लिए- शायद ही कहीं ‘अस्तबल’ नाम की कोई चीज है। मेरा मानना है उन्हें-‘अस्तबल’ नहीं ‘होम स्टे’ जैसी आरामदायक सुविधा मिले।
दूसरा यह कि ‘एक अरब’ सुनने- पढ़ने के बाद एकाएक हर किसी की दृष्टि इसी ओर घूम गई है। इसलिए इचौलियों-बिचौलियों की भूमिका भी बढ़नी ही है। ऐसे समय में हमें इतिहास से भी सीख लेनी है। गौर करें तो लिखा भी है कि- ‘मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के बाद उसके चचेरे भाई के शासन काल में सैनिकों को नकद वेतन देकर गांव की मालगुजारी के हिस्से दिये जाते थे। सैनिकों ने बिचौलियों को ठेका दे दिया। और अपनी हाजिरी लगाने के लिए रिश्वत के रूप में बेकार घोड़े पेश करने लगे।’
तनिक विचार करें – अगर इस तरह से इतिहास अपने आप को दोहराये। खैर, हम कदापि नहीं चाहते कि हमारे घोड़ो पर अत्याचार की घटनाएं और बढें। ये भी नहीं चाहते कि हमारे हर एक घोड़े को हांकने के लिए दस-दस हट्टे-कट्टे खड़े मिलें।
तीसरी बात हमें अपने घोड़ों की खुराक के समुचित प्रबन्ध करने होंगे। क्योंकि इतिहास के पन्ने पर कहीं यूं भी लिखा गया है- कि -‘गुजरांवाला के आदमी अपने घोड़ों की आंखों पर हरे रंग की पट्टी चढ़ा देते थे ताकि वे भूसा और सूखी घास को हरी घास समझकर खाते रहें।’
और इस बात पर भी गौर करें! पहाड़ के दूर दराज के गधों के कंधों पर कीमती दुसाले हैं। हमनें यह नहीं कहा कि वे गधे दुसालों के काबिल नहीं हैं लेकिन हम अपने घोड़ों को दुसाला न सही एक-एक मोटा कम्बल तो बांट ही सकते हैं! क्या कहा ये सम्भव नहीं है? तो के.के. भुल्लर साहब ने अपनी पुस्तक ‘महाराजा रणजीत’ में क्या यूं ही लिख दिया है कि महाराजा के शासन काल में – ‘प्रत्येक सिपाही को दो कम्बल मिलते थे- एक अपने लिए और एक उसके घोड़े के लिए।’ भई आज के लोकतांत्रिक समय में भी एक अदद कम्बल हर एक गरीब की मूलभूत जरूरत है।
देखते हैं हमारे घोड़ों के कितने सपने पूरे होते हैं!